Saturday, December 31, 2011

आँखों की, गुस्ताखियाँ, माफ़ हो

A playful exchange on justifying certain romantic interactions.




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Male:
[आँखों की, गुस्ताखियाँ, माफ़ हो] - 2
एक तुक तुम्हें देखती हैं
जो बात कहना चाहे ज़बान तुम से ये वो कहती हैं

आँखों की शर्मो हया माफ़ हों
तुम्हे देखके झुकती है
उठी आँखें जो बात न कह सकी झुकी आँखें वो कहती हैं

आँखों की, आँखों की, गुस्ताखियाँ माफ़ हो


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Male:
काजल का एक तिल तुम्हारे लबों पे लगा लूं
हाँ, चन्दा और सूरज की नज़रों से तुमको बचा लूं
पलकों की चिलमन में आओ मैं तुमको छुपा लूं
खयालों की, ये शोकियाँ, माफ़ हो
हर दम तुम्हे सोचती है जब होश में होता है जहाँ
मदहोश ये करती हैं

आँखों की शर्मो हया माफ़ हों

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Female:
ये ज़िंदगी आपकी ही अमानत रहेगी
दिल में सदा आपकी ही मुहब्बत रहेगी
इन साँसों को आपकी ही ज़रुरत रहेगी
हाँ, इस दिल की, नादानियाँ माफ़ हो
ये मेरी कहाँ सुनती है
ये पल पल जो होती हैं बेकल सनम तो सपने नए बनती हैं

आँखों की, आँखों की, गुस्ताखियाँ माफ़ हो

शर्मो हया ... माफ़ हों



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